"Not Romantic In personal Life"
संजीव श्रीवास्तव
भारत संपादक, बीबीसी हिंदी
"Not Romantic In personal Life"
संजीव श्रीवास्तव
बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात' में हम भारत के जाने-माने लोगों की ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से आपको अवगत कराते हैं. बीबीसी 'एक मुलाक़ात' में इस बार ख़ास मेहमान हैं जाने-माने फ़िल्म निर्देशक और लेखक इम्तियाज़ अली.
सबसे पहले ये बताएँ कि आपकी पैदाइश जमशेदपुर में हुई है. क्या वहीं से ये ख़्वाहिश पैदा हो गई थी टाटा टाउन से टिंसल टाउन जाना है?
मुझे लगता है कि हर बच्चे का शौक़ होता है कि वो फ़िल्मों में जाए. मैंने अपने मां-बाप से पूछा तो उन्होंने भी बताया कि वो भी बचपन में फ़िल्मों में जाने की इच्छा रखते थे. लेकिन बचपन का शौक बचपन का ही होता है. बाद में मैं थिएटर से जुड़ गया. थिएटर की वजह से मैं परफॉर्मिंग ऑर्ट से जुड़ा और यहां तक पहुँचा.
इम्तियाज़ कुछ अपने बचपन के बारे में बताएँ?
मैं जब छोटा था तो बहुत डींगे हांका करता था और झूठ बोला करता था, लेकिन बहुत शांत था. मैं किसी भी चीज़ में बहुत अच्छा नहीं था. बहुत साधारण था. कभी-कभी मुझे अपने साधारण होने पर ग़ुस्सा भी आता था. मैं चुप रहता था और लोगों को देखता रहता था. दिमाग़ में कहानियाँ चला करती थी और मैं इन्हें लोगों को सुनाया करता था, जबकि वैसा कुछ होता नहीं था.
तो क्या-क्या डींगे हाँका करते थे?
छोटी-छोटी बातें. मसलन कि मैं अपने स्कूल की फ़ुटबॉल टीम का कैप्टन हूँ, जबकि मैं टीम का सदस्य भी नहीं था. जब मैं नौवीं क्लास में था तो मैं फेल हो गया और इससे मेरा जीवन लगभग बदल गया. फेल होने से जो ज़िल्लत मिली, उसके बाद मैं ज़्यादा मज़बूत हुआ. तभी मैं मज़बूत हुआ. मुझे लगता है कि उससे पहले मैं अपने दिमाग़ का इस्तेमाल करता ही नहीं था.
तो आपके विषय क्या थे?
मैंने साइंस से बारहवीं किया. तब मेरे विषय फिज़िक्स, कैमेस्ट्री और मैथ थे. मेरा इरादा इंजीनियरिंग करने का था. लेकिन तब मैं बास्केटबॉल खेला करता था. तब मुझे देश की राष्ट्रीय टीम से खेलने का निमंत्रण मिला था, लेकिन मैं खेल नहीं पाया.
ये कोई डींग तो नहीं है?
मुंबई आकर एडवरटाइजिंग करने का ख़्याल ऐसे आया क्योंकि मुझे लगता था कि एडवरटाइजिंग में अनिश्चितता नहीं है. मुझे लगता था कि पहले मैं नौकरी करूँगा अपना घर-बार चला सकूंगा और फिर मैं फ़िल्मों के लिए संघर्ष कर सकूँगा. पर लाख कोशिशों के बाद भी नौकरी नहीं मिली
इम्तियाज़ अली
नहीं बदक़िस्मती से ये सही है. मुझे लगता है कि अगर इस देश में बास्केटबॉल का ज़्यादा स्कोप होता तो मैं बास्केटबॉल ही खेला करता और शायद अब तक कोच होता. हनुमान सिंह जी को मैंने खेलते हुए देखा है. वे 90 की पोजीशन से खेलते थे और बहुत अच्छा खेलते थे.
तो विज्ञान पढ़ने और बास्केटबॉल खेलते हुए ऐसा क्या हुआ कि आपने तय किया कि अब फ़िल्में बनाएँगे?
बस फ़िल्में बनाने का फ़ैसला तो आज तक नहीं किया है, लेकिन ये सच है कि फ़िल्में बना रहा हूँ. चूँकि मैं मध्यम वर्ग परिवार से आता हूँ, इसलिए मुझे नहीं पता था कि डायरेक्टर कैसे बनते हैं. मैं थिएटर करता रहा. फिर मुंबई आया. एडवरटाइजिंग की नौकरी ढूँढी, लेकिन नहीं मिली. फिर छोटा-मोटा कुछ काम किया. पहले टेलीविजन में निर्देशक बना और तब फ़िल्मों में आया.
और इंजीनियरिंग का विचार कब छोड़ा?
इंजीनियरिंग का विचार मैंने तब छोड़ा जब मैं पढ़ने के लिए दिल्ली गया और मुझे लगा कि मैं इंग्लिश लिटरेचर करूँ. तो पहले मैंने अपने पिता को सहमत किया. शुरू से ही मेरी अंग्रेज़ी अच्छी थी. मैंने बहुत से प्ले पहले ही कर रखे थे, इसलिए मैं कॉलेज में टॉप करता रहता था. मैं क्लास भी ज़्यादा नहीं करता था. मेरे प्रिंसिपल भी अच्छे थे. उन्होंने मुझसे कहा था कि अगर मैं दो प्ले डायरेक्ट करूँ तो मुझे क्लास अटैंड करने की ज़रूरत नहीं है. मैंने हाल ही में उनसे मुलाक़ात की और उनका शुक्रिया अदा किया. उन्होंने कहा कि हमें पता होता है कि कौन सा छात्र किस तरफ़ जाएगा.
कौन से कॉलेज में पढ़ते थे आप. सुना है कि हॉस्टल में आपके कमरे का कुछ किस्सा भी है?
मैं हिंदू कॉलेज में पढ़ता था. वहाँ के हॉस्टल में कमरा नंबर 91 में मैं रहता था. उसे बहुत अपशकुनी माना जाता था. माना जाता था कि उसमें जो रहता है वो फ़ेल हो जाता है. कहा जाता था कि उसमें रहने वाले कुछ लोग ग़ायब भी हो गए हैं. माना जाता था कि वहाँ कोई बुरी आत्मा रहती है.
उस कमरे में कोई जाता नहीं था. हमें लगा कि ये कमरा तो बहुत बड़ा है और अच्छा है. हम तीन लोग वहाँ रहते थे. मैं, राजा बालासुब्रमण्यम और रजनीश उर्फ़ ओशो. हुआ ये कि जिस साल हम वहाँ रहे तो मैंने कॉलेज टॉप किया, बाला ने यूनीवर्सिटी के डिबेट जीते और ओशो ने तो यूनीवर्सिटी ही टॉप कर डाली. इसके बाद लोगों की मानसिकता ही बदल गई और उस कमरे को पाने वालों की होड़ लग गई.
तो कॉलेज टॉप कर आप धक्के खाने मुंबई पहुँचे. फिर क्या हुआ?
मुंबई आकर एडवरटाइजिंग करने का ख़्याल ऐसे आया क्योंकि मुझे लगता था कि एडवरटाइजिंग में अनिश्चितता नहीं है. मुझे लगता था कि पहले मैं नौकरी करूँगा अपना घर-बार चला सकूंगा और फिर मैं फ़िल्मों के लिए संघर्ष कर सकूँगा.
और मुंबई में पहला काम कैसे मिला?
मैंने एक साल तक एडवरटाइजिंग में नौकरी ढूँढी, लेकिन मुझे नौकरी नहीं मिली. मुझे याद है कि एक हज़ार रुपये की नौकरी के लिए मैंने एक-एक महीने तक दौड़ धूप की. मुझे पहली नौकरी ज़ी टीवी में मिली. वो भी टेप डिलीवरी की. इसमें क्रिएटिव कुछ भी नहीं था.
आपको पहली फ़िल्म 'सोचा न था' कैसे मिली?
'जब वी मेट' में शाहिद और करीना की जोड़ी ने काम किया है
मैंने ज़ी टीवी में कुछ दिनों काम किया. उसके बाद प्रेस कम्युनिकेशन नाम की कंपनी में साल-डेढ़ साल काम किया. फिर मैंने टेलीविज़न में डायरेक्ट करना शुरू किया. मैंने एक कहानी लिखी थी, जिसके सिलसिले में मैं सनी देओल से मिला. आख़िरकार उन्होंने इस फ़िल्म को बनाने का बीड़ा उठाया.
मैं जब कहानी सुनाने के सिलसिले में सनी देओल से मिलने शिमला जा रहा था, तो मुझे लगा कि ऐसी कहानी लेकर जा रहा हूँ जिसमें हीरो एक भी पंच नहीं मारता, बल्कि उल्टे दो-तीन झापड़ ख़ुद ही खाता है, तो पता नहीं उन्हें ये पसंद आएगी भी कि नहीं. लेकिन जब मैं उनसे मिला तो मुझे पता लगा कि वो तो बहुत संवेदनशील इंसान हैं.
मैं ये जानना चाहता हूँ कि कहानी लिखने से पहले आख़िर दिमाग़ में क्या चल रहा होता है?
मैं किसी फ़िल्म स्कूल में नहीं गया न ही मैं किसी का सहायक रहा हूँ. मैं जब छोटा था तो दोस्तों को इकट्ठा कर नाटक किया करता था. नाटक करने के लिए जो सामग्री की ज़रूरत होती है, उसकी ज़रूरत पड़ी तो स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर दी. टेलीविज़न में भी मैंने ऐसा ही किया.
आपकी पहली फ़िल्म ‘सोचा न था’ नहीं चली. ऐसे में आपको ‘जब वी मेट’ कैसे मिली?
हुआ ये था कि सोचा न था को बनने में चार साल लगे थे. उन चार साल में मैंने बहुत सारी फ़िल्म स्क्रिप्ट लिख डाली थी. उनमें से एक जब वी मेट भी थी, जिसे मैं पहले ट्रेन कहा करता था. पहले मैं ये फ़िल्म बॉबी देओल के साथ बनाना चाह रहा था, लेकिन बॉबी के पास तारीखों और दूसरी दिक़्क़तों के चलते ये फ़िल्म शुरू नहीं हो पाई.
'सोचा न था' के दो साल बाद भी ये फ़िल्म शुरू नहीं हो सकी थी. लेकिन फ़िल्म इंडस्ट्री में इस कहानी की चर्चा हो गई थी. इस बीच मैं एक दूसरे काम के सिलसिले में शाहिद कपूर से मिला. शाहिद ने मुझसे कहा कि ट्रेन वाली कहानी सुनाओ. उन्हें पसंद आई. लेकिन फ़िल्म तो मुझे बॉबी के साथ बनानी थी, लेकिन बात नहीं बनी.
मैंने बॉबी से कहा कि मैं शाहिद और करीना के साथ ये फ़िल्म शुरू कर रहा हूँ. शाहिद और करीना फ़िल्म को लेकर बहुत रोमांचित थे.
फ़िल्म बनाते हुए क्या आपको पता था कि ‘जब वी मेट’ इतनी ज़बर्दस्त हिट होगी?
उस वक़्त जो भी इस कहानी को सुन रहा था, इसकी तारीफ़ कर रहा था. फिर फ़िल्म के साथ कई बातें जुड़ी होती हैं. इस पर ज़्यादा खर्च नहीं था. इतना था कि फ़िल्म अगर औसत कारोबार भी करती तो भी थोड़े-बहुत पैसे बन जाते.
'जब वी मेट' के लिए कोई जादुई नुस्ख़ा नहीं था. फ़िल्म में जो पात्र होते हैं, वही लेखक के माध्यम से कहानी लिखवाते हैं. गीत और आदित्य जिस तरह से बात कर रहे होते थे, कहानी उसी तरह बनी है. ऐसा नहीं था कि कलाकार अपनी तरफ़ से संवाद बोल रहे थे. लिखी गई लाइनों को बोलना, वाक़ई बड़ी बात है और शाहिद और करीना ने वही किया.
जिस बंदे ने जीत सिंह मान का रोल किया था वो पटियाला का ही था. हमने उसको वहीं से पकड़ा था. उन्होंने पहले कभी कोई फ़िल्म नहीं की थी. इसी तरह जिसने अंशुमन की भूमिका की थी, उन्होंने एक फ़िल्म ही की थी और वो बैंगलोर में सेटल हो गए थे.
होटल डिसेंट में जिसने रिसेप्सनिस्ट की भूमिका की वो (टैडी मौर्य) हमारी फ़िल्म का प्रोडक्शन डिज़ाइनर था. क्योंकि कोई और कलाकार नहीं मिला तो हमने उसे लिया और उसने अच्छा अभिनय किया.
फ़िल्म का संगीत तो बहुत अच्छा था?
'जब वी मेट' के लिए कोई जादुई नुस्ख़ा नहीं था. फ़िल्म में जो पात्र होते हैं, वही लेखक के माध्यम से कहानी लिखवाते हैं. गीत और आदित्य जिस तरह से बात कर रहे होते थे, कहानी उसी तरह बनी है. ऐसा नहीं था कि कलाकार अपनी तरफ़ से संवाद बोल रहे थे. लिखी गई लाइनों को बोलना, वाक़ई बड़ी बात है और शाहिद और करीना ने वही किया
इम्तियाज़ अली
प्रीतम से मेरी बहुत पुरानी दोस्ती थी. इरशाद ने मेरी पिछली फ़िल्म में गाने लिखे थे, लिहाज़ा उनसे भी दोस्ती थी. प्रीतम, मैं और इरशाद जब साथ में काम करते हैं तो सब कुछ भूल जाते हैं. मैं ये चाहता था कि हमें ऐसे गाने बनाने चाहिए कि वो सबसे पहले हमें पसंद आए.
'जब वी मेट' में आपके पसंदीदा सीन कौन से हैं?
मुझे वैसे तो पूरी फ़िल्म बहुत अच्छी नहीं लगी. लेकिन कुछ सीन की बात करें तो करीना की वो लाइन बहुत अच्छी लगी कि मैं अपनी फेवरिट हूँ. मुझे लगता कि ये बहुत अच्छी बात है कि कोई ये कहे कि मैं अपना फेवरिट हूँ.
आपकी नज़र में शाहिद और करीना में से किसने अच्छा काम किया?
दोनों के किरदार अलग थे. ये बात ज़रूर है कि करीना के पात्र को नोटिस करना ज़्यादा आसान था, लेकिन शाहिद के अभिनय को लड़कियों ने बहुत पसंद किया.
'जब वी मेट' का एक और दृश्य मुझे बहुत पसंद है. जब शाहिद और करीना छत में छिपे होते हैं. जब ये आवाज़ें आती हैं कि हम लड़के को मार डालेंगे. शाहिद बहुत डरा हुआ है और परेशान है कि वो किसी मुसीबत में न फंस जाए, लेकिन गीत बहुत शांत है. जब शाहिद उससे पूछता है कि तुम्हें डर नहीं लग रहा है क्या. इस पर गीत जो अपनी दो पैसे की फिलॉसफी बताती है. वो मुझे बहुत अच्छी लगती है. मुझे लगता है कि आम जीवन में हमें ऐसा ही करना चाहिए.
'जब वी मेट' का ख़राब पहलू शायद ये है कि उसके बाद भले ही आप ‘लव आजकल’ जैसी अच्छी फ़िल्म बना लें, लेकिन लोग ‘जब वी मेट’ के मानक से ही आपको परखेंगे?
हाँ, अपेक्षाएँ तो रहती ही हैं. लव आजकल में मैं इसलिए उत्साहित था कि 'जब वी मेट' से मैंने जो कुछ सीखा था, उसका प्रयोग मैं लव आजकल में नहीं कर सकता था. क्योंकि इस फ़िल्म में अभिनेता-अभिनेत्री साथ में थे ही नहीं. मैं इस बात से बहुत रोमांचित था कि इस फ़िल्म में कुछ हटकर करने का मौक़ा मिलेगा.
सैफ़ या शाहिद में आपको कौन पसंद है?
जो भी रोल हो, उसके हिसाब से मैं उन्हें परखता हूँ. मैं ऐसे नहीं सोचता कि ये अच्छा है या ये बड़ा है.
और दीपिका पादुकोण के साथ काम करना?
बहुत अच्छा. उनके साथ काम करना बहुत आसान है.
आप तो रोमांटिक फ़िल्म बनाते हैं. आप खुद कितने रोमांटिक हैं?
मेरे पसंदीदा अभिनेता दिलीप कुमार हैं. उनकी फ़िल्में गंगा जमुना, नया दौर, अंदाज, मधुमति बहुत पसंद है. गंगा-जमुना मेरे माता पिता की भी पसंदीदा फ़िल्म है. अभिनेत्रियों की बात करें तो मुझे जया भादुड़ी बहुत पसंद हैं. उनकी फ़िल्म शोले बहुत अच्छी लगी.
इम्तियाज़ अली
मैं निजी जीवन में कतई रोमांटिक नहीं हूँ. मैं अपनी फ़िल्मों के किरदारों से एकदम उलट हूँ. मैं दरअसल, अंशुमन की तरह हूँ जिसे बाद में पता चलता है कि क्या छूट गया.
अपनी बेगम से आप कैसे मिले थे?
जब मैं नौवीं क्लास में पढ़ता था तब मेरी मुलाक़ात प्रीति से हुई थी. 'अलाद्दीन एंड वंडरफुल लैंप' नामक नाटक में वो हीरोइन थी और मैं हीरो.
और आपको नौवीं क्लास में ही समझ में आ गया था कि ये ही हैं?
समझ में तो अब भी नहीं आया है, लेकिन उस वक़्त मुझे जैसा लगा, मैंने वैसा ही किया.
प्रीति मेरे काम में मददगार साबित होती हैं. वो कड़वी बात भी कहती हैं जिसका बाद में बहुत फ़ायदा होता है.
आपको जीवन में सबसे ज़्यादा प्रेरित किसने किया है?
कई लोगों ने मुझे प्रेरित किया है. मेरे माता-पिता, मेरे अध्यापकों का मुझ पर बहुत प्रभाव है. ट्रेन में मिले आम लोगों, सिनेमा में काम करने वाले छोटे-छोटे लोगों का भी बहुत असर है.
पसंदीदा अभिनेता, अभिनेत्री और डायरेक्टर?
मेरे पसंदीदा अभिनेता दिलीप कुमार हैं. उनकी फ़िल्में गंगा जमुना, नया दौर, अंदाज, मधुमति बहुत पसंद है. गंगा-जमुना मेरे माता पिता की भी पसंदीदा फ़िल्म है.
अभिनेत्रियों की बात करें तो मुझे जया भादुड़ी बहुत पसंद हैं. उनकी फ़िल्म शोले बहुत अच्छी लगी.
डायरेक्टरों में विमल रॉय और विजय आनंद मुझे बहुत पसंद हैं.
सुना है कि आप कविताएँ भी लिखते हैं?
कविताएँ मैं बचपन में लिखा करता था. वो भी अंग्रेज़ी में.
खाने का शौक़ है आपको?
हां खाने का बहुत शौक़ है. रेड मीट बहुत पसंद है. मेरी मां साधारण तरीक़े से जो गोश्त बनाया करती थी, वो मुझे बहुत पसंद है.
घूमने का शौक़ है आपको?
मुझे पहाड़ बहुत पसंद हैं. छोटी-छोटी जगहें, जहाँ अलग-अलग तरह का खाना मिलता है. लोग चाय पीते हैं, हुक्का पीते हैं. वैसी जगहें मुझे पसंद हैं.
इम्तियाज़ अली इन दिनों क्या कर रहे हैं?
कुछ नहीं. थोड़ा इनसिक्योर हो रहे हैं. क्योंकि हर कोई यही पूछता है कि अगली फ़िल्म क्या लेकर आ रहे हैं. कहानी तो लिख ली होगी. जबकि फिलहाल मैं क्लीन स्लेट हूँ.
बीबीसी एक मुलाक़ात में आपकी पसंद के गाने?
मुझे 'मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया' बहुत पसंद है. इसके अलावा लोफर का गाना 'आज मौसम बड़ा बेईमान है', लव आजकल का गाना 'ये दूरियाँ' भी मुझे बहुत पसंद है. इसके अलावा नुसरत फ़तेह अली ख़ान के गाने भी मुझे पसंद हैं.
Source:// www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/09/090913_ekmulaqat_imtiazali_awa.shtml